राज्यसभा चुनावः आम चुनाव के पहले बीजेपी और विपक्षी दलों में ज़ोर आजमाइश, किसका क्या है दांव पर

Arjun
By Arjun

15 राज्यों की इन सीटों के लिए भारतीय जनता पार्टी ने जहां रेलवे मंत्री अश्विनी वैष्णव और पूर्व कांग्रेसियों आरपीएन सिंह और अशोक चव्हाण को मैदान में उतारा है.

वहीं समाजवादी पार्टी की तरफ़ से जया बच्चन और तृणमूल कांग्रेस की ओर से पत्रकार और लेखिका सागरिका घोष उम्मीदवार हैं.

कांग्रेस, बिहार की राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल (यूनाइटेड), ओडिशा की बीजू जनता दल और अन्य दल भी चुनाव में हिस्सा ले रहे हैं.

उत्तर प्रदेश में जहां कुल 10 सीटों के लिए चुनाव होंगे. यूपी में जया बच्चन समेत समाजवादी पार्टी के तीन उम्मीदवार हैं. वहीं, बीजेपी ने आठ उम्मीदवार खड़े कर दिए हैं.

इसके बाद राजनीतिक हलक़ों में ये चर्चा ज़ोरों पर है कि समाजवादी पार्टी अपने तीसरे उम्मीदवार के लिए ज़रूरी मत नहीं जुटा सकेगी.

बीजेपी के अपने वोटों की संख्या 252 है.

राष्ट्रीय लोकदल समेत सहयोगी दलों के मतों को मिलाकर उसके पास कुल वोटों की संख्या 280 है.

अगर राजा भैया के दो विधायकों को भी मिला लें तब भी उनके पास 14 वोटों की कमी हो सकती है

पर्दे के पीछे क्या चल रहा है?

राज्यसभा की एक सीट जीतने के लिए प्रथम वरीयता वाले 37 वोटों की ज़रूरत बताई जा रही है.

यूपी में सपा के पास कांग्रेस को मिलाकर कुल 110 मत हैं. इस बीच स्वामी प्रसाद मौर्य ने पार्टी के अहम पदों से इस्तीफ़ा दे दिया है और एक विधायक पल्लवी पटेल खुलेआम कह रही हैं कि वो सपा के पक्ष में वोट नहीं देंगी.

मीडिया में छप रही ख़बरों के मुताबिक़ कई जगहों पर ये ख़तरा जताया जा रहा है कि बीजेपी सपा में तोड़-फोड़ कर क्रास-वोटिंग करवा सकती है.

तोड़-फोड़ के ख़तरे के साथ सपा पर ये भी आरोप है कि उन्होंने यादव समाज से बाहर के किसी पिछड़े या मुस्लिम समुदाय के व्यक्ति को उम्मीदवार नहीं बनाया. हालांकि अखिलेश यादव 2024 आम चुनावों के लिए पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक के फॉर्मूले की बात करते रहते हैं.

सपा के उम्मीदवारों में से दो कायस्थ समाज (जया बच्चन और आलोक रंजन) से ताल्लुक रखते हैं जबकि रामजीलाल सुमन दलित हैं.

बिहार में उठते सवाल

उत्तर प्रदेश से सटे बिहार में इंडिया गठबंधन के दूसरे सहयोगी दल लालू प्रसाद की राष्ट्रीय जनता दल में भी किसी मुस्लिम को टिकट न दिए जाने और तेजस्वी प्रसाद के निजी सचिव संजय यादव को उम्मीदवार बनाने को लेकर कई तरह के प्रश्न उठाए जा रहे हैं.

आरजेडी ने मनोज कुमार झा, संजय यादव और कांग्रेस के खाते से अखिलेश प्रसाद सिंह को मैदान में उतारा है.

बीजेपी की तरफ़ से भीम सिंह, धर्मशीला गुप्ता हैं. जद (यू) के खाते से संजय कुमार झा ने नामांकन भरा है.

पत्रकार और हेरिटेज टाइम्स नाम की वेबसाइट के संपादक उमर अशरफ़ ने लिखा, “पिछले कुछ सालों में तेजस्वी यादव कई बड़ी ग़लती कर चुके हैं, जिसका उन्हें नुक़सान उठाना पड़ा है और आगे भी सकता है.”

वो आगे लिखते हैं, “मुसलमान मातम कर सकता है कि उन्हें कुछ नहीं मिला”,

वसीम नैयर पूछते हैं, “क्या तेजस्वी यादव को पूरे बिहार से एक भी मुसलमान चेहरा पसंद नहीं?”

आरजेडी प्रवक्ता जयंत जिज्ञासु ऐसे आरोपों को ख़ारिज करते हैं. वो विद्यासागर निशाद, जगदंबी मंडल और राम जेठमलानी से लेकर अशफाक़ करीम, जाबिर हुसैन और मतिउर्रहमान का उदाहरण देते हैं.

वो कहते हैं, “लालू प्रसाद 1990 के दशक से लगातार सर्व समावेशी राजनीति करते रहे हैं, तेजस्वी यादव भी उसी राह पर हैं.”

संजय यादव के बाहरी होने के सवाल पर वो कहते हैं, “बिहारियों ने शरद यादव से लेकर मुफ़्ती मोहम्मद सईद, जार्ज फर्नांडिस, केसी त्यागी, हरिवंश और दूसरों को अपनाया है, संजय जी के मामले को भी इसी रूप में देखा जाना चाहिए.”

एमपी में सबसे अधिक इनकी चर्चा

मध्य प्रदेश में यूं तो पांच सीटें ख़ाली हो रही हैं लेकिन उसमें सबसे अधिक चर्चा कांग्रेस उम्मीदवार अशोक सिंह को लेकर है जिनके लेकर कहा जा रहा है कि वो राहुल गांधी की पहली पसंद नहीं थे.

ख़बरों के अनुसार राहुल गांधी अपनी सहयोगी मीनाक्षी नटराजन को मध्य प्रदेश के रास्ते राज्य सभा भेजना चाहते थे लेकिन सूबे के दिग्गजों दिग्विजय सिंह और कमलनाथ ने उन्हें अशोक सिंह के पक्ष में राज़ी किया.

राजनीतिक विश्लेषक जयंत सिंह तोमर कहते हैं, “ग्वालियर-चंबल की राजनीति पर पिछले कई दशकों से महल हावी रहा है, और कांग्रेस के स्थानीय नेताओं को लगता है कि अगर पार्टी को क्षेत्र में अपनी राजनीतिक ज़मीन हासिल करनी है तो उसके लिए सिंधिया-परिवार केंद्रित राजनीति को समाप्त करना होगा. इस नाते अशोक सिंह का परिवार शुरू से ही, उनके दादा कक्का डूंगर सिंह के समय से ही सामंतवाद-विरोधी रहा है.

जयंत सिंह तोमर कहते हैं कि आज़ादी के बाद से, जबतक सिंधिया परिवार कांग्रेस में शामिल नहीं हुआ, ग्वालियर-चंबल की राजनीति में दबदबा उन लोगों का था जो स्वतंत्रता आंदोलन से निकले थे.

हालांकि अशोक सिंह पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के बेहद क़रीबी माने जाते हैं. दिग्विजय सिंह का ताल्लुक ख़ुद सामंती परिवार से है और उन्हें अबतक लोग ‘राजा’ बुलाते हैं.

ग्वालियर-चंबल से ताल्लुक रखने वाले जयंत तोमर का मानना है, “प्रदेश कांग्रेस नेता मुझे लगता है राहुल गांधी को ये समझा पाने में कामयाब रहे कि जिस तरह ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस की सरकार गिराई उसको इसी तरह से चुनौती देकर खोई हुई प्रतिष्ठता वापस पाई जा सकती है.”

पावर गलियारे में पहुंच बनाने की कोशिश

मध्य प्रदेश से सटे प्रदेश महाराष्ट्र में कांग्रेस छोड़कर हाल में ही बीजेपी समेत दूसरी पार्टियों में शामिल हुए दो लोगों, अशोक चह्वाण और मिलिंद देवरा को राज्य सभा भेजे जाने के पार्टी के फैसले को लेकर राज्यसभा का मुक़ाबला दिलचस्प हो गया है.

पूर्व कांग्रेस सांसद मिलिंद देवरा हाल में ही कांग्रेस छोड़कर शिव सेना (शिंदे) में शामिल हुए हैं जबकि कांग्रेस से बीजेपी में आए प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण को बीजेपी ने अपनी तरफ़ से मैदान में खड़ा किया है.

मिलिंद देवरा की उम्मीदावारी को लेकर तो चर्चा ये रही है कि उन्हें शिंदे गुट का रास्ता इसलिए सुझाया गया क्योंकि बीजेपी के पास इस समय ऊपरी सदन के लिए कोई वैकेंसी नहीं थी.

बीबीसी मराठी सेवा के मुताबिक़ जानकारों का ये भी मानना है कि एकनाथ शिंदे समूह मिलिंद देवरा को राज्यसभा इसलिए भी भेजना चाहता है क्योंकि उसके पास संसद में शिव सेना की प्रियंका चतुर्वेदी या संजय राउत या फिर एनसीपी की सुप्रिया सोगले जैसे नेता नहीं है.

मिलिंद देवरा दिल्ली के पावर गलियारे में शिंदे समूह की पहुंच को बढ़ाने में मददगार साबित हो सकते हैं.

पुणे की पूर्व विधायक मेधा कुलकर्णी को ऊपरी सदन में बीजेपी के भेजने के फ़ैसले को ब्राह्मण वोटों को खुश करने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है.

कोलकाता से वरिष्ठ पत्रकार पुलकेश घोष कहते हैं कि ममता बनर्जी हमेशा से महिलाओं को प्रोत्साहित करती हैं सागरिका घोष की उम्मीदवारी को भी इसी रूप में देखा जाना चाहिए.

बंगाल में लंबे समय तक सागरिका घोष के न रहने को लेकर वो बोलते हैं कि उस तरह से तो सुष्मिता देव का भी बंगाल से कोई संबंध नहीं.

वो कहते हैं कि सागरिका घोष के पुराने ट्वीट को लेकर भी ख़्वाहमख़्वाह हो हल्ला हो रहा है. नीतीश कुमार और बीजेपी ने भी तो साथ न आने की बात कही थी मगर फिर साथ हो लिए.

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